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मा ते॑ अ॒स्यां स॑हसाव॒न्परि॑ष्टाव॒घाय॑ भूम हरिवः परा॒दै। त्राय॑स्व नोऽवृ॒केभि॒र्वरू॑थै॒स्तव॑ प्रि॒यासः॑ सू॒रिषु॑ स्याम ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā te asyāṁ sahasāvan pariṣṭāv aghāya bhūma harivaḥ parādai | trāyasva no vṛkebhir varūthais tava priyāsaḥ sūriṣu syāma ||

पद पाठ

मा। ते॒। अ॒स्याम्। स॒ह॒सा॒ऽव॒न्। परि॑ष्टौ। अ॒घाय॑। भू॒म॒। ह॒रि॒ऽवः॒। प॒रा॒ऽदै। त्राय॑स्व। नः॒। अ॒वृ॒केभिः॑। वरू॑थैः। तव॑। प्रि॒यासः॑। सू॒रिषु॑। स्या॒म॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:19» मन्त्र:7 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:30» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और प्रजाजन परस्पर कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हरिवः) प्रशंसित मनुष्य और (सहसावन्) बहुत बल से युक्त राजा ! (अस्याम्) इस (परिष्टौ) सब ओर से सङ्ग करने योग्य वेला में (ते) आपके (परादै) त्याग करने योग्य (अघाय) पाप के लिये हम लोग (मा, भूम) मत होवें (अवृकेभिः) और जो चोर नहीं उन (वरूथैः) श्रेष्ठों के साथ (नः) हम लोगों की (त्रायस्व) रक्षा कीजिये जिससे हम लोग (तव) तुम्हारे (सूरिषु) विद्वानों में (प्रियासः) प्रसन्न (स्याम) हों ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जैसे हम लोग तुम्हारी उन्नति के निमित्त प्रयत्न करें, वैसे आप भी प्रयत्न कीजिये, विद्या के प्रचार से सबको विद्वान् कराइये जिससे विरोध न हो ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजप्रजाजना अन्योऽन्यं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे हरिवः सहसावन् राजन्नस्यां परिष्टौ ते परादा अघाय वयं मा भूमाऽवृकेभिर्वरूथैर्नस्त्रायस्व यतो वयं तव सूरिषु प्रियासः स्याम ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) निषेधे (ते) तव (अस्याम्) प्रजायाम् (सहसावन्) बहुबलयुक्त (परिष्टौ) परितः सङ्गन्तव्यायाम् (अघाय) पापाय (भूम) भवेम (हरिवः) प्रशस्तमनुष्ययुक्त (परादै) परादानाय त्यागाय त्यक्तव्याय (त्रायस्व) (नः) अस्मान् (अवृकेभिः) अचोरैः (वरूथैः) वरैः (तव) (प्रियासः) प्रीताः (सूरिषु) विद्वत्सु (स्याम) भवेम ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यथा वयं तवोन्नतौ प्रयतेमहि तथा त्वमपि प्रयतस्व विद्याप्रचारेण सर्वान् विदुषः कारय येन विरोधो न स्यात् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जसे आम्ही तुझ्या उन्नतीसाठी प्रयत्न करतो तसे तूही प्रयत्न कर. विद्येचा प्रचार करून सर्वांना विद्वान कर. ज्यामुळे विरोध होता कामा नये. ॥ ७ ॥